Friday, October 14, 2011

मोम के सायें...

यू ही
भटकते कहीं मिल जाते हैं
कभी राह में
कभी पड़ाव पर
कभी धूप में
कभी छाव में
कभी डूबते सूरज से कूदते चाँद में
लुप्त होते चाँद से उदय होते सूर्य में
यू ही
छिटक जाते हैं
कभी इस मोड़ पर
कभी उस छोर पर
कभी अंध में
कभी धुंध में
कभी फैलते कोहरे से गहराते अँधेरे में
कभी गहराते  अँधेरे से फैलते कोहरे में
यू ही
भूले-भटके से चले आते हैं
कभी अकेली शाम को  
कभी तन्हा रात को
कभी पलटते पन्नों पर
कभी उघडती परतों पर
कभी शुष्क होठों से गीली पलकों पर
कभी गीली पलकों से शुष्क होठों पर
यू ही  
कभी पिघल जाते हैं
आंसुओ में
कभी  जम जाते हैं 
ख्वाबों में
मोम के सायें!   

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