इधर-उधर से
सुनकर
जानकर
अनजाने ही
तुम्हारे बारे में
मैंने कुछ लकीरे तय की
अपनी
भावनाओं
इच्छाओं के रंगों से
सजाकर
मैंने
तुम्हारी तस्वीर बनाई
शायद
तुम्हे पता नहीं है
की हम
कितनी ही रातें
खेलते
हस्ते
खिलखिलाते
रहे है
इकठ्ठा
और
हम जब मिले
बाहर
जहाँ
पुतले होते है
तस्वीरे
नहीं होती
मैं अवाक था
तुम हुबुहू
मेरी तस्वीर जैसे थी
उस वक़्त तक
कहाँ
देख पाया था मैं
तुम्हारी आँखों के कोने में छिपे
समाज को
और कहाँ
हावी हो पाया था
समाज
खुद मुझ पर
शायद
तुम्हे याद ना हो
तुमने
नजरे झुका ली थी
और
मैं
स्तभ था
पल में
बहुत अपने से
अनजाने हो जाने की
प्रक्रिया पर!
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