कभी सांझ सा ढलता
दोपहर सा जलाता कभी कभी तारों सा टिमटिमाता
और रात सा बहकता कभी
चाँद सा खोया कभी
तो सुबह सा जगाता कभी
मैं कुछ कुछ ज़िन्दगी सा हूँ!
फूल सा महकता कभी
धुल सा भटकता कभी
हवा सा बहता कभी
और पत्ते सा ढहता कभी
बारिश सा भीगता कभी
और बर्फ सा गिरता-जमता कभी
मैं कुछ कुछ ज़िन्दगी सा हूँ!
हर चीज़ से हैरान कभी
हर शख्स से अनजान कभी
कभी दौड़ता शैतान सा
और शांत कभी सुनसान सा
कभी चीखता-चिल्लाता मैं
कभी खामोश बेजुबान सा
मैं कुछ कुछ ज़िन्दगी सा हूँ!
कभी मोम सा पिघलता मैं
कभी कठोर चट्टान सा
कभी चहकता बाज़ार सा
कभी बंद गली के मकान सा
कभी हर किसी के साथ सा
और कभी बिना किसी पहचान मैं!
कभी संकरी गली सा
कभी खुला मैदान मैं
कभी ग़म सा भरा भरा
कभी सिसकियों का तूफ़ान मैं
कभी महफ़िल सा हरा हरा
और कभी तनहा बेजान मैं
मैं कुछ कुछ ज़िन्दगी सा हूँ!
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