Tuesday, August 9, 2011

तुम कुछ ना कहो...

चेहरे 
पर रुकने न दो  
रौशनी को देर तक
खरोचे साफ दिखाई देती है
अँधेरे
को रुक-रुक कर
फैलने दो 
थोडा इधर
थोडा उधर
आँखों में छिपी बुँदे
न ही दिखे तो अच्छा है

जो
हस रहा है
हसने दो उसे
जो रो रहा है
रोने दो उसे 
फासले सिमट रहे है अब
रोने के
हसने के
कोई हस-हस के रो रहा है
कोई रो-रो के रो रहा है

मत
उदेठो अतीत के सफ़र      
की परते
कुछ
देर और
रहने दो
भरी पलकों को झुका
सुनहरे अतीत की यादो
के सपनो के बोझ तले 

 क्यों
हाफल सा
नजर आ रहा है
हर शख्स वहां
क्यों
हर कोई
बेताब सा है
कुछ न कुछ उगलने को
मत खिचो पर्दा
किसी के बदन से
हर एक
की पीठ पर
छपे है निशान
वक़्त के कोडो के

ना
कुरेदो उसे
अभी ताज़ी है राख
जिसे
भी छूकर देखिये
जल रहा है
हर पल दबे रहने दो
अंगारों को जहाँ है
हर तरफ ज्वालामुखी है
दावानल है

आज भी
गूंज रही है
सदायें कानो में
झूटी हकीकतो की
कर रही है
तांडव
मूर्तियाँ
खोखली आस्थाओ की 
जो
जिसके सामने
बैठा है घुटने टेक
बैठा रहने दो उसे
पग-पग पर
बिखरे पड़े है
भगवान् ख़ुदकुशी के

फैलने
दो शब्दों को
जहाँ तक फैलना चाहे
चिटक भिखर जाने दो
पंक्तियों को
पन्नो के आर-पार
किसी की
तरफ ना करो इशारा
चुप रहने  दो
हर आदमी कविता है
हर आदमी कहानी है
हर आदमी नाटक है
तुम कुछ ना कहो
हर आदमी है जिंदगी!


2 comments:

  1. I'm so sorry Saru...i didn't mean to hurt your soul!Kidding...thank u again n again!

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