उग आये थे
मेरे बिस्तर पर
कांटें
धोकनी हो गयी थी
सांसें
सूखकर
जम गई थी
पलकें
उस रात
जब तुम
फिर आई थी
बिखर गई
मानस पटल के टूटे आइनों पर
और
तुम्हारी हँसी
बार-बार
टकरा रही थी सुन्न कानों से
उस रात
खुली आँख के कोरों से
बह गए थे
सैकड़ों पल
और
मेरे अस्तित्व पर फैली
एक विशाल दास्तान
सिमट गई थी
तकिये
के भीगे कोनों पर!
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