Thursday, September 1, 2011

कभी-कभी यू ही...

बहुत वक़्त गुजारा है
रात को
इन हाथो में
संभाले हुए
उन खुशनुमा पलों की तलाश में
कभी-कभी यू ही
चाँद के चेहरे पर
अपनी उंगलियों के निशान ढूंढता हूँ

अचानक ही हो गया ये सब
उस आंधी से पहले
शायद तुमने कहा था कुछ
उन गुमशुदा शब्दों  की तलाश में
कभी-कभी यू ही
हवाओं की सरसराहट में
तुम्हारे सुरों की झंकार ढूंढता हूँ

धुप निकली तो
अँधेरे गए
कुछ ख्वाब गए
उस वाष्पित एहसास की तलाश में
कभी-कभी यू ही
बादलो की आकृति में
अपने आकाश का विस्तार ढूंढता हूँ

जरा सी चोट लगी
टूट गए
बिखर गये
उस बिखरे कांच की तलाश में
कभी-कभी यू ही
दिल में झाँक कर
आइनों के चेहरे में बिकार ढूंढता हूँ 

कभी बह न सके
जम गये
सुख गये
उन गमजुदा बूंदों की तलाश में
कभी-कभी यू ही
भीगी आँख के कोनो में
ज़ज्बातो के सैलाब ढूंढता हूँ

ईमारत आलिशान थी
ढहे गयी
गिर गयी
उस रहनुमा कल की तलाश में
कभी-कभी यू ही
खंडर की दीवारों पर
अपने अतीत का सामान ढूंढता हूँ!


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