तुम
आग उगलते
दहाड़ते
एक नयी
सव विचित्र धुन
अलापते
आज भी
मेरे सामने खड़े हो
तुम
बहूत तेज
दोड़ेने लगे थ
दोड़ेते-दोड़ेते
एक दम रुककर
चिल्लाने लगे
फिर
खामोश हो गए
सुना है
तुमने आताम्ह्त्या कर ली है
तुम
टूट गए
बजाये झुकने के
में क्यों नही
मानना चाहता
क्यों
महसूस करता हु
एक खालीपन सा
क्यों
एक चोट
बार-बार
उबर आती है
एक चोट
जो मुझे
एहसास दिलाती है
तुम्हारी
उपस्तिथि का
भर देती है
मुझे अजीब संकल्प से
मै चाहता हूँ
वो चोट
उबरे मेरे मन में
हर बार ज्यादा ताकत से
जिसके साथ
तुम जिन्दा हो
क्योंकि मै चाहता हु
तुम्हे जिन्दा देखना
एक शरीर के रूप में न सही
एक
सामाजिक आघात के रूप में!
It's so deep and some words are still lingering...beautiful:)
ReplyDeletegahare bhav liye hue hai aapki kavita ...likhte rahiye ....shubhakamnaye
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